बारह भावनाओं के चिंतन से लाभ


बारह भावनाओं के चिंतन से लाभ
         *वैराग्य वर्धिनी माता* जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि ये बारह भावनायें संसार , शरीर और भोगों से विरक्त करने में समर्थ है।
     


 हे आत्मन् ! यह संसार एक मायामयी नगर के समान है , जिसमें स्त्री , पुत्र , मित्रादि सचित्त और धन-धान्यादि अचित्त परिग्रह प्राणी को सदैव व्याकुलित करते हैं , शरीर सदा रोगों से घिरा रहता है , मृत्यु अपना ग्रास बनाने के लिये प्रतिक्षण तैयार खड़ी है , आपत्तियाँ प्रतिदिन पीड़ित करती हैं , जो विषय भोग देखने में आकर्षक लगते हैं वो स्वप्न के समान ठगने वाले हैं , क्या नरक तिर्यंचादि गतियों के दुख तुझे भयभीत नहीं करते ?..... 

           यदि भयभीत करते हैं , संसार के दुखों से छूटना चाहते हो तो हे भव्य ! अपने भावों की विशुद्धि के लिये इन बारह भावनाओं का प्रतिदिन अभ्यास करना ही चाहिये।

              इन भावनाओं के चिंतन से कषाय रूपी अग्नि शांत होती है , पर द्रव्यों के प्रति राग गलता है , अज्ञान अंधकार का नाश होता है और ज्ञान रूपी दीपक का प्रकाश होता है। ये भावनायें तत्त्वों का निर्णय कराकर सम्यक्त्व को उत्पन्न कराने वाली हैं। इनके समान हितकारी जगत में और कोई नहीं है , इसलिये इनका चिंतन बारम्बार करना अति अावश्यक है। देखा जाये तो यही द्वादशांग का सार है , और कालान्तर में यही भावनायें संपूर्ण कर्मों के क्षय का कारण बनती हैं।

               मुनिराज और श्रावक दोनों ही इन भावनाओं का चिंतन करते हैं। हम कह सकते हैं कि मुनिराजों के लिये इन भावनाओं को भाने की क्या आवश्यकता है ?  वो तो पहले ही संसार , शरीर और भोगों से विरक्त हैं।

            ये बात सही है कि वो संसार से विरक्त हैं , पर इनका आकर्षण कहीं मन को विचलित न कर दें , इसलिये मुनिराज भी निरन्तर बारह भावनाओं का चिंतन करते हैं -- जिस प्रकार महावत उपद्रव से रक्षा करने के लिये बलवान हाथी को खम्भे से बाँधकर रखता है , उसी प्रकार मुनिराज विषयों से मन का संरक्षण करने और परिणामों में  उत्तरोत्तर वृद्धि के लिये निरन्तर बारह भावनाओं का चिंतन करते हैं।
          
         मोह रूपी राजा के रहते हुये हमारा मन भी प्रतिसमय पंचेन्द्रियों के विषयों की ओर भागता है , अतः चंचल मन पर अंकुश लगाने के लिये हमें भी बारह भावनाओं का प्रतिदिन चिंतन करना चाहिये।

      लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि शरीरादि को बुरा जानकर अहितकारी मानकर उससे उदासीन हो जायें - इसका नाम अनुप्रेक्षा नहीं है। क्यों कि ये तो वही हुआ कि पहले जिसे मित्र वत् जानकर राग करते थे अब उसके अवगुणों को देखकर द्वेष करें। परन्तु भाई द्वेष भी तो कषाय का ही प्रतिरूप है। तो फिर क्या करें ??

           हे आत्मन् ! संसार ,शरीर और भोगों का यर्थात स्वरूप जानकर उसमें एकत्व , कर्तत्व , ममत्व और भोक्तृत्व का जो भाव था उसे दूरकर न राग रूप न द्वेष रूप ऐसी यर्थात उदासीनता या समता का भाव उत्पन्न होना ही सच्ची अनुप्रेक्षा है।
                 
            आज तक जितने भी जीव सुखी हुयें हैं , उन सबने बारह भावनाओं का चिंतन किया था , और यदि हम सब भी सुखी होना चाहते हैं तो हमें भी इनका चिंतन अवश्य करना चाहिये।
#साभार संकलित.                       

गुरु भक्त विशाल जैन उज्जैन
7828043129

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