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अष्टाह्निका महापर्व का महत्व
अष्टाह्निका पर्व कब ओर क्यों मनता है?



संपूर्ण श्रेष्ठ पर्वों में अष्टाह्निका पर्व का अपना विशेष महत्व है। कार्तिक,फाल्गुन व आषाढ़ के अंतिम आठ दिनों में यह पर्व आता है।
अष्टमी से प्रारंभ होकर चतुर्दशी व पूर्णिमा तक आठ दिनों में पूरा होता है।इस पर्व में किए गए जप,तप,अनुष्ठान विशेष फलदायी हैं।पर्व के दौरान स्वर्ग के संपूर्ण देव मिलकर मध्य लोक के आठवें नंदीश्वर द्वीप में जाते हैं और धूमधाम से भक्तिभाव से अकृत्रिम चैत्यालयों में स्थित जिनबिंबों की अर्चना करते हैं।
अष्टम नंदीश्वर द्वीप🚩
नंदीश्वर द्वीप में कुल ५२ चैत्यालय होते हैं चूंकि हम नंदीश्वर द्वीप जाने में असमर्थ हैं अतः मध्यलोक के आर्यखंड में भक्तगण यहां कृत्रिम देव का रुप धारण कर भक्तिभाव से अष्टान्हिका पर्व में विधानानुसार देवार्चना पूजन करते हैं।
नंदीश्वर द्वीप की चारों दिशाओं में चारों ओर काले रंग के चार अंजन गिरि होते हैं जोकि ८४००० योजन विस्तार वाले होते हैं।
ये पर्वत ढोल के समान गोल होते है तथा उनपर सुंदर मंदिर होते हैं।इन ४ अंजन गिरि के चारों दिशाओं में चार-चार कुल १६ वापियाँ बताई गई है।ये वापियाँ एक लाख योजन विस्तार वाली व निर्मल जल से भरी हैं।
इन १६ वापियों के मध्य में १०००० योजन विस्तार वाले सफेद रंग के १६ रतिकर पर्वत होते हैं जिनके ऊपर भी मंदिर होते हैं।इन १६ वापियों के किनारों पे चारों ओर दिशाओं में १ लाख योजन वाले,४ वन होते हैं।
प्रत्येक वापिका के बाहरी दोनों कोनों में २-२ लाल रंग के रतिकर पर्वत हैं इस प्रकार १६ वापिकाओ के ३२ रतिकर पर्वत हैं।इनका प्रत्येक का विस्तार १००० योजन है।इन ३२ रतिकर पर्वतों पर भी जिन मंदिर हैं।
सभी मिलाकर कुल ५२ अकृत्रिम चैत्यालय ५२ पर्वत १६ वपियाँ और ६४ वन होते है।
सभी पर्वतों के शीश पर एक एक जिन मंदिर होता है जिनमें नयनो को मोहित करने वाली प्रतिमाएं ५०० धनुष उत्तंग व कांति से युक्त होती हैं।इनके मुख मंडल सूर्य के समान दैदीप्यमान  श्वेत व श्याम रंग के सुंदर नेत्र हैं। ये प्रतिमाएं समचतुरस्त्र संस्थान वाली अतीव सुंदर होती हैं। उनकी सुंदरता का वर्णन करते हुए कहा जाता है कि देखने वाले वहां से अपने नेत्र हटाना ही नहीं चाहते,अपलक देखते ही रहते हैं। भौंह व सिर के केश श्यामवर्णी अतीव सुंदर होते हैं उन श्री जिन की प्रतिमाएं निहारते हुए ऐसा लगता है मानो वे हमसे बातें कर रही हों तथा हमें देख प्रसन्नता से मुस्करा रहे हों।अनेक आकर्षण अकथनीय होता है।
उन श्री जिन बिंबों की कांति करोड़ों सूर्यो की कांति को भी छुपाने वाली होती है।उन जिन बिंबों के दर्शन मात्र से प्राणियों के परिणाम वैराग्यमय हो जाते हैं और भव्य प्राणी उनके दर्शन पा सम्यकदर्शन को प्राप्त कर लेते हैं।
पूर्व दिशा में कल्पवासी,दक्षिण में भवनवासी,पश्चिम में व्यंतर व उत्तर में ज्योतिष देव व देवी पूजा करते हैं।
भक्ति वह सेतू है जो मुक्ति का प्रबल हेतू है।भक्ति करने वाला अपने सकल इष्ट ध्येयों की सिद्धि कर लेता है।मुक्ति पथानुगामी अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतू भक्ति का ही सहारा लेते हैं।अष्टान्हिका पर्व की पुनीत बेला में नंदीश्वर द्वीप की कल्पना कर जो भक्ति करता है वह अवश्य ही उसके गुणश्रेणी निर्जरा व प्रबल पुण्य संचय का हेतू बनेगा।
✍साभार
विशाल जैन उज्जैन मध्य प्रदेश

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